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20 नवंबर को संसद के कमरा नंबर-10 में प्रधानमंत्री से मिले थे शरद पवार, 26 को इसी कमरे में तय हुआ कि फडणवीस इस्तीफा दें

नई दिल्ली से संतोष कुमार. महाराष्ट्र के सियासी उलटफेर की शुरुआत मुंबई में 22-23 नवंबर की मध्य रात्रि में हुई, पर अंत संसद भवन के कमरा नंबर-10 से हुआ। यहां सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के फौरन बाद प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्‌डा ने बैठक की। इसमें हालात की समीक्षा की गई, जिसमें पता लग गया था कि अजित पवार परिवार के दबाव में हैं और वे उतने विधायक नहीं जुटा पाएंगे, जितने का वादा उन्होंने 22 नवंबर की आधी रात को फडणवीस से किया था। तब तय हुआ कि फडणवीस इस्तीफा सौंप दें।

महज 6 दिन पहले संसद के इसी कमरा नंबर-10 में शरद पवार और प्रधानमंत्री की मुलाकात हुई थी। तब ये चर्चा चल पड़ी थी कि भाजपा को राकांपा का समर्थन मिल सकता है। मंगलवार की बैठक में हुई चर्चा के बारे में शीर्ष रणनीतिकार ने बताया, “हमने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद स्थिति का आकलन किया और फडणवीस को इस्तीफे का निर्देश दिया, लेकिन राजनीति में कभी भी संभावनाएं खत्म नहीं होतीं।”

भाजपा कहां चूक गई?

इस बारे में रणनीतिकारों का कहना है कि अजित पवार ने 22 नवंबर की रात देवेंद्र फडणवीस को जब संदेश दिया कि वे 36 से ज्यादा विधायकों को अपने साथ लेकर आ सकते हैं। अजित अपने चाचा शरद पवार के इस ऐलान से सहमत नहीं थे कि उद्धव ठाकरे ही नेतृत्व करेंगे, जबकि अजित चाहते थे कि शिवसेना और एनसीपी के विधायकों की संख्या में महज दो कम है, इसलिए ढाई-ढाई साल का सीएम होना चाहिए। उधर शरद पवार परिवार में विरासत की लड़ाई को देखते हुए इस पक्ष में नहीं थे। इसी से खफा अजित पवार ने पाला बदलने की रणनीति को आगे बढ़ाया,जिसकी सूचना फडणवीस ने अमित शाह को दी। उसके बाद शाह ने अपने भरोसेमंद महासचिव भूपेंद्र यादव को 22 नवंबर की रात मुंबई भेज दिया। जहां देर रात अजित पवार ने विधायकों के साथ बैठक की और उसी रात राजभवन जाकर सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि प्रधानमंत्री ने अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफारिश कर दी और शपथ के बाद फडणवीस-अजित पवार को ट्वीट कर बधाई भी दे दी।


चूक शाह की या फडणवीस की?

देवेंद्र फडणवीस के इस्तीफे के बाद शाह की चाणक्य नीति पर सवाल उठ रहे हैं, पर भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों का कहना है कि कर्नाटक के मामले से सबक लेते हुए अमित शाह ने इस बार सरकार गठन का सारा दारोमदार प्रदेश इकाई पर ही छोड़ दिया था। इसकी अगुवाई फडणवीस ही कर रहे थे। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि, “हरियाणा को लेकर सरकार गठन में शाह धनतेरस के दिन भी अहमदाबाद से दिल्ली पहुंचकर फैसला किया था। लेकिन, महाराष्ट्र के मामले में उन्होंने पूरी तरह से फैसला राज्य इकाई पर छोड़ दिया था। अगर उन्हें इस तरह सरकार बनाने की इच्छा होती तो यह राष्ट्रपति शासन से पहले ही हो जाता।”

शाह ने कर्नाटक के मामले में यह रणनीति अपनाई थी। वहां शाह सबसे बड़ा दल होने के नाते जनता को यह संदेश देना था कि पार्टी ने जनादेश के मुताबिक कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली। कर्नाटक में राज्य इकाई ने सरकार नहीं बनाने की राय दी थी। महाराष्ट्र के मामले में शाह ने राष्ट्रपति शासन से पहले तक प्रदेश इकाई को साफ निर्देश दिया था कि अपनी ओर से कोई ऐसी जल्दबाजी नहीं करनी है। उनका मकसद शिवसेना को बेनकाब करना था। लेकिन राष्ट्रपति शासन के बाद तेजी से राजनीतिक घटनाक्रम बदला और फडणवीस ने शीर्ष नेतृत्व को संदेश भेजा, उसके बाद शाह ने महासचिव को भेजा।

पवार का इंतजार करती तो भाजपा को मिल सकता था फायदा
महाराष्ट्र में सत्ता को लेकर प्रधानमंत्री मोदी और शरद पवार के बीच किसानों को लेकर हुई 40 मिनट की मुलाकात में सैद्धांतिक सहमति बन गई थी। लेकिन, सूत्रों के मुताबिक तब पवार ने पीएम से कहा था कि पहले वह शिवसेना-कांग्रेस के साथ शर्तों-संभावनाओं को तलाश रहे हैं। वहां बात नहीं बनने पर वह विचार करेंगे। भाजपा के लिए सकारात्मक संदेश था कि पवार का समर्थन भविष्य में मिल सकता है। लेकिन, जिस तरह से फडणवीस ने अजित पवार का संदेश अमित शाह को दिया, उसके बाद की प्रक्रिया में जल्दबाजी हो गई। खामियाजा यह हुआ कि शरद पवार ने इस पूरे मसले को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया।

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Shah devoured the trust on the local unit, was contrary to the advice of the state unit in Karnataka


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