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नई दिल्ली. ‘‘हमारी सरकार बनने के बाद से आज तक एनआरसी शब्द की कभी चर्चा तक नहीं हुई। असम में भी हमने एनआरसी लागू नहीं किया था, जो भी हुआ वो सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुआ।’’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान पर 22 दिसंबर को एक जनसभा में यह बात कही थी। मोदी के इस बयान के बाद देशभर में एनआरसी लागू करने के वादे से भाजपा लगातार मुकरती रही है। 22 दिसंबर से पहले तक गृहमंत्री अमित शाह संसद से लेकर चुनावी रैलियों में कई मौकों पर देशभर में एनआरसी को हर हाल में लागू करने की बात कह चुके थे। मोदी की रैली के बाद वे भी एक इंटरव्यू में यह कहते सुने गए कि एनआरसी बहस का मुद्दा नहीं है, क्योंकि अभी इसे देशभर में लागू करने पर कोई विचार नहीं किया गया है। ताजा घटनाक्रम बिहार का है, जहां भाजपा-जदयू गठबंधन की सरकार ने सर्वसम्मति से राज्य में एनआरसी लागू नहीं करने को लेकर विधानसभा से संकल्प पारित किया।
अब सवाल उठता है कि आखिर एनआरसी को लेकर भाजपा ने अपना रुख एकदम क्यों बदल लिया? बिहार में एनआरसी के खिलाफ पारित प्रस्ताव को भाजपा का समर्थन क्या महज राज्य में होने वाले चुनाव के लिए है? या उन्हें गठबंधन के कारण ऐसा करना पड़ा? और अगर ऐसा है तो जिन-जिन राज्यों में भाजपा की गठबंधन सरकारें हैं क्या वहां भी भाजपा एनआरसी का विरोध करेगी? या भाजपा अब एनआरसी को लेकर पूरी तरह पीछे हट चुकी है? सवाल कई हैं, लेकिन जवाब नहीं। हम बस जवाब समझने की कोशिश कर सकते हैं...
1# उपचुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद भाजपा जदयू का साथ नहीं छोड़ना चाहती
बिहार में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। पिछले चुनाव में जदयू, कांग्रेस और राजद के साथ मिलकर भाजपा के खिलाफ लड़ी थी। लेकिन बाद में महागठबंधन टूटा और जदयू प्रमुख नीतीश कुमार ने भाजपा की मदद से सरकार बनाई। बिहार में गठबंधन सरकार चल तो रही है लेकिन कई मुद्दों पर मतभेद रहे हैं। हालांकि जिस मुद्दे (एनआरसी) पर सबसे ज्यादा मतभेद होना था, वहां भाजपा भी जदयू के साथ हो गई। यह क्यों हुआ? इसे जानने के लिए 4 महीने पीछे जाते हैं। 25 अक्टूबर को बिहार की 5 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के नतीजे आए थे। जदयू-भाजपा गठबंधन को सिर्फ एक सीट मिली थी, जबकि पहले उनके पास 4 सीटें थीं। इसमें सीमरी-बख्तियारपुर सीट मुस्लिम बहुल थी, जो पहले जदयू के पास थी।उपचुनाव में जदयू कोयह सीट खोना पड़ी। उपचुनाव के नतीजों को बिहार विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया जा रहा था। इनसे भाजपा को राज्य में अपनी हालत पतली होती दिखी। जदयू के साथ लड़ने पर यह हालत है तो अकेले लड़ने पर स्थिति और बुरी हो सकती है। शायद भाजपा को यही डर है और इसी कारण वह जदयू का साथ नहीं छोड़ना चाहती। यह नीतीश सरकार के इस प्रस्ताव में भाजपा के समर्थन का बड़ा कारण हो सकता है।
2# बिहार में मुस्लिम वोटरों का 47सीटों पर असर, यहां जदयू को नुकसान का डर
बिहार की 243 सीटों में से 47ऐसी हैं, जहां मुस्लिम वोटर निर्णायक स्थिति में हैं। इन इलाकों में मुस्लिम आबादी 20 से 40 प्रतिशत या इससे भी ज्यादा है। 2010 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को इन 47 सीटों में 25 पर जीत हासिल हुई थी, तब भाजपा और जदयू के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी। फिलहाल, देशभर में केन्द्र की भाजपा सरकार के खिलाफ हो रहे विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए ऐसी सफलता अब संभव नहीं लगती। यहां तक कि भाजपा के साथ लड़ने के चलते जदयू को भी मुस्लिम बहुल सीटों पर नुकसान के आसार हैं। ऐसे में मुस्लिमों का भरोसा पार्टी में कायम रखने के लिए जदयू को कोई न कोई कदम तो उठाना ही था। भाजपा के लिए भी यह जरूरी है कि जहां उसे सीट न मिले, वहां सहयोगी दल तो कुछ सीटें लेकर आए। ऐसे में एनआरसी के खिलाफ आए इस प्रस्ताव में उसकी भी सहमति रही।
3# दो साल में 7 राज्यों में सत्ता गंवा चुकी भाजपा अब एक और राज्य नहीं खोना चाहती
दिसंबर 2017 में एनडीए के पास 19 राज्य थे। अब 16 राज्य हैं। 2 साल में पार्टी ने 7 राज्यों में सत्ता गंवाई। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर और झारखंड... ये सभी बड़े राज्य थे। इसके बदले भाजपा ने चार राज्यों में सत्ता हासिल भी की, लेकिन कर्नाटक को छोड़कर अन्य राज्य (मिजोरम, त्रिपुरा और मेघालय) बहुत छोटे हैं। भाजपा के हाथ से लगातार निकलते इन बड़े राज्यों से निश्चित तौर पर पार्टी हाईकमान चिंता में है और वह ऐसा कोई सा कदम नहीं उठाना चाहता, जिससे उसे एक और बड़ा हिंदी भाषी राज्य खोना पड़े। पिछले 6 महीनों में हुए 4 विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने अनुच्छेद 370, अयोध्या में राम मंदिर को सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश किया, लेकिन इनका असर नहीं दिखा। महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में पार्टी को हार मिली और हरियाणा में भी सत्ता जाते-जाते बची। यानी पार्टी हाईकमान इस बात को समझती है कि स्थानीय मुद्दों के आगे कश्मीर, राम मंदिर और एनआरसी जैसे मुद्दे काम नहीं कर पाते।
भाजपा की 16 राज्यों में सरकारें, यहां उसे एनआरसी से पीछे हटने की जरूरत नहीं
- भाजपा की 16 राज्यों में सरकारें हैं। इनमें से 8 में भाजपा अकेले दम पर सत्ता में है। बिहार समेत बाकी 8 राज्यों में भाजपा गठबंधन के सहारे है। इनमें से भी 5 राज्यों (बिहार, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम) में भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी है। इन 16 राज्यों में भाजपा का एनआरसी को लेकर रूख बदलने का कोई ठोस कारण नजर नहीं आता। दरअसल, जिन 8 राज्यों में भाजपा सहयोगी दलों के भरोसे हैं, उनमें ज्यादातर पूर्वोत्तर राज्य हैं, जहां स्थानीय पार्टियां एनआरसी के समर्थन में ही रही हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि यहां के स्थानीय लोग बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों का हमेशा से विरोध करते रहे हैं। मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में भाजपा को एनआरसी पर बैकफुट पर जाने की दरकार नहीं होगी, क्योंकि यहां उसे एनआरसी लागू करने से फायदा ही होगा। ठीक इसी तरह सिक्किम में भी इस बिल के समर्थन या विरोध से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा।
- हरियाणा में भाजपा का सहयोगी दल जननायक जनता पार्टी (जजपा) एनआरसी के समर्थन में है। जजपा नेता और राज्य के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला एनआरसी को देशहित में बता चुके हैं। गोवा में भाजपा के सहयोगी दलों गोवा फॉरवर्ड पार्टी, महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी से भी एनआरसी को लेकर कोई विरोध सामने नहीं आया है।
- ठीक इसी तरह जिन 8 राज्यों में भाजपा की अपने दम पर सरकारें हैं, वहां भी भाजपा को ज्यादा समस्या नहीं होगी। असम, अरुणाचल और त्रिपुरा में लगभग सभी स्थानीय लोग और पार्टियां एनआरसी के पक्ष में ही रही हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड में भाजपा को एनआरसी से फायदा होने की ही उम्मीद होगी। कर्नाटक का भी मामला कुछ जुदा नहीं है।
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