रुपया संरक्षण मांग रहा है। हमारी संपत्ति हमारे सामने कंपकंपा रही है। हमारा वैभव मुरझा गया है, प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। अपने मनुष्य होने पर भय लगने लगा है। जान और जीविका दोनों एक-दूसरे के सामने खड़े हो गए। जान पर काम करो तो जीविका सवाल उठाती है, जीविका की सोचो तो जान साथ छोड़ने की बात करती है। ऐसे में क्या किया जाए? चलिए, अभी सिर्फ जीविका की बात करते हैं। सबको फिक्र है और शुरुआत हो चुकी है। नुकसान नौकरी का हो या व्यापार का, होगा जरूर।
आज हम जिन परिस्थितियों से गुजर रहें हैं, ये केवल स्थितियां नहीं, घाव बन गई हैं और यह घाव किसी सर्जरी से ठीक नहीं होगा। इसमें अध्यात्म का मरहम लगाना होगा। एक प्रतिष्ठित व्यवसायी ने मुझे सुझाव दिया था कि हम यह मान लेंगे कि महीने कम हो गए और साल 12 की जगह 10 महीने का रह गया। नुकसान की भरपाई हम इस सोच से कर लेंगे। लेकिन, अब तो यह भी नहीं पता कि साल में कितने महीने कम करना हैं।
हिंदू कैलेंडर में होते तो 12 महीने हैं, लेकिन यदि आपको रुपए की रक्षा करना हो तो एक विचार अपनाया जा सकता है कि यह वर्ष छह माह का था और इन छह माह को ऋतु से जोड़ लें। हिंदुओं ने एक ऋतु में दो मास रखे हैं। ये छह ऋतु हैं- वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर। तो ऐसा मान लीजिए कि इस वर्ष छह ऋतुओं यानी छह माह में ही कमा पाए हैं। बाकी छह माह अज्ञात, अभाव के रह गए और इसी अभाव में आनंद आएगा।
जीने की राह कॉलम पं. विजयशंकर मेहता जी की आवाज में मोबाइल पर सुनने के लिए 9190000072 पर मिस्ड कॉल करें
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