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अगर ये कोरोना न होता तो इस हफ्ते विम्बलडन शुरू हो चुका होता। तीन दिनों से मेरा परिवार मुझे यह रोना रोते देख रहा है कि मुझे विम्बलडन कितना याद आ रहा है। चूंकि मैंने लंदन में विम्बलडन, जर्मनी में फुटबॉल और पाकिस्तान में क्रिकेट भी कवर किया है, इसलिए इनकी मेरे दिल में खास जगह है। जब भी लंदन के ऑल इंग्लैंड क्लब में विम्बलडन होता है, मैं पत्नी को टीवी की ओर इशारा कर गर्व से बताता हूं, ‘मैं वहां बैठा था’ या ‘मैंने यह किया था।’
तभी मेरी बेटी बीच में कूद पड़ी और अपना दुखड़ा बताने लगी, ‘आप विम्बलडन को याद कर रहे हैं और आप नहीं जानते कि मुझे मुंबई के नाइट-आउट (रात की सैर) की कितनी याद आ रही है, जो मैंने 100 दिन से नहीं किया है। ऊपर से आप पुलिस कस्टडी में हुई मौतों की दर्दनाक बातें भी बता रहे हैं।’ (हाल ही में हुआ तमिलनाडु मामला) वह बहुत व्यथित थी। उसकी प्रतिक्रिया महाराष्ट्र और तमिनाडु सरकारों द्वारा सोमवार को कर्फ्यू 31 जुलाई तक बढ़ाने के फैसले का नतीजा थी।
इससे मुझे 1972 में लिखे गए विजय तेंदुलकर के मशहूर नाटक घासीराम कोतवाल की याद आई, जिसपर 1976 में इसी नाम से मराठी फिल्म भी बनी। विजय तेंदुलकर आधुनिक भारतीय साहित्य के प्रमुख शख्सियतों में से एक थे, जिनका यह नाटक दशकों से सफलापूर्वक चल रहा है।
फिल्म/नाटक की कहानी अठारहवीं सदी में पेशवा के अधीन रहे पुणे की है और वास्तविक ऐतिहासिक किरदारों पर आधारित है। शक्तिशाली शासक नाना फणनवीस (मोहन अगाशे द्वारा अभिनीत) और पुणे में एक बाहरी व्यक्ति, एक उत्तर भारतीय ब्राह्मण घासीराम कोतवाल (ओम पुरी की पहली भूमिका) इस कहानी के मुख्य किरदार थे। उन दिनों भी रात में कर्फ्यू रहता था। रात करीब 9 बजे एक तोप दागी जाती, जो लोगों को संकेत देती कि सूर्योदय तक उनपर प्रतिबंध हैं। इतिहासकारों के मुताबिक माधवराव पेशवा को शहर की रक्षा के लिए एक स्वतंत्र सुरक्षा एजेंसी बनाने का विचार आया और 1764 में कोतवाल (पुलिस) तंत्र शुरू हुआ। इस तरह 1765 से रात का कर्फ्यू शुरू हुआ जो 1852 में हटने तक, 87 साल चला।
अगर इतिहासकारों की किताबों और रिकॉर्ड्स की मानें तो जैसे हाल में तमिलनाडु पुलिस कस्टडी मामले में पुलिस पर बर्बरता का आरोप है, उसी तरह उन दिनों में भी पुलिस शक्ति का गलत इस्तेमाल करती थी।
फिल्म में पुलिस प्रमुख घासीराम कोतवाल दाई को लेने जा रहे एक व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेता है और अमानवीय ढंग से पूछता है, ‘उसे आधी रात को बच्चा पैदा करने की क्या जरूरत है।’ 1791 में एक बर्बर घटना तब हुई थी जब रात के कर्फ्यू से अनजान सड़कों पर घूम रहे 34 ब्राह्मणों को गिरफ्तार कर तंग कमरे में बंद कर दिया गया। उनमें से 21 दम घुटने से मर गए। जब इनकी मौत की खबर फैली तो नाराज भीड़ बदला लेने घासीराम के घर पहुंची, जो जान बचाने के लिए पेशवा के पास भाग जाता है। लेकिन पेशवा उसे भीड़ के हवाले कर देता है, जो उसकी पत्थरों से मार-मारकर जान ले लेती है। बुरी ही सही, उस दौर की यह याद इतिहास में दर्ज हो गई। लेकिन कोरोना से जो कर्फ्यू हुआ है, वह अलग है और उसकी कुछ अलग यादें बनाई जा सकती हैं।
फंडा यह है कि यह समय अच्छी यादें बनाने का है, जैसे आप सैकड़ों दिनों तक आस-पास हो रही घटनाओं के साथ, बिना बाहर जाए परिवारों के साथ कैसे रहे। जीवन को भरपूर जिएं, हो सकता है कि आपके अनुभवों को भी परिवार के इतिहास में जगह मिल जाए।
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