आंगन में भीड़ है, भीतर बर्तन बिखरे पड़े है, दाल और कच्चे चावल रखे हैं, वहीं दूर बाजरे के खेत के बीच चिता से अभी भी धुआं उठ रहा है
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पीड़िता के गांव से पंद्रह किलोमीटर पहले मेरी गाड़ी को पुलिसकर्मियों ने रोका और पूछा कहां जा रही है। मैंने कहा हाथरस जा रही हूं, वहीं रहती हूं। कुछ तांकझांक के बाद उन्होंने मुझे जाने दिया।पुलिसकर्मी पीड़िता के गांव जाने वालों को रोक रहे हैं। गांव के बाहर भारी पुलिसबल तैनात हैं। वहीं समाजवादी पार्टी, कांग्रेस पार्टी, आजाद समाज पार्टी के कार्यकर्ता यूपी सरकार के खिलाफ नारेबाजी कर रहे हैं। वाल्मिकी समाज से जुड़े संगठनों के लोग दूर-दूर से यहां पहुंच रहे हैं लेकिन उन्हें पीड़िता के गांव जाने नहीं दिया जा रहा है। उन्होंने सोशल मीडिया पर पीड़िता के बारे में पढ़ा है और उनका खून उबल रहा है।
मुख्य मार्ग से एक पतली पक्की घुमावदार सड़क गांव की ओर जाती है। रास्ते में बाजरे के खेत हैं। कहीं कहीं धान लगे हैं। इन्हीं बाजरे के खेतों में 14 सितंबर को कथित तौर पर पीड़िता के साथ गैंगरेप हुआ। अब यहां पत्रकारों की भीड़ है। कुछ तस्वीरें ले रहे हैं, कुछ पीस टू कैमरा रिकॉर्ड कर रहे हैं। पत्रकार बार-बार दोहरा रहे हैं कि इस घटना ने देश को हिला कर रख दिया है।
थोड़ा और आगे चलने पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का एक समूह मिला। जो इस सड़क से ना होकर, खेतों-खेतों से कच्चे रास्ते से होते हुए यहां पहुंचा था। वो प्रियंका गांधी को पीड़िता के घर तक पुहंचाने की रैकी करने के लिए आए थे।
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गांव में घुसते ही अभियुक्तों का घर है। घर के पीछे भैंसें बंधी हैं। उनके खेत भी घर से ही लगे हैं। ये एक बड़ा घर है जिसमें कई परिवार रहते हैं। चार में से तीन अभियुक्तों का यही घर है। अभियुक्तों का परिवार शिकायत करता है कि सभी पीड़िता के घर जा रहे हैं और उनका पक्ष कोई नहीं पूछ रहा है। ये पूछने पर कि क्या पुलिस ने उनसे कोई पूछताछ की है, तो उन्होंने कहा हमने अपने मुलजिम हाजिर कर दिए थे। पुलिस ने तो हमसे बात तक नहीं की। अभियुक्तों की माएं बार-बार कहती हैं कि उनके बेगुनाह बेटों को झूठा फंसाया गया है।
गांव में पुलिस का भारी जमावड़ा है। दूसरे जिलों से भी पुलिसकर्मी यहां भेजे गए हैं। बाहरी जिले से आई दो महिला पुलिसकर्मी एक तखत पर सुस्ता रहीं थीं। उन्हें नहीं पता था कि वो अभियुक्तों के घर के पास हैं। जब पता चला तो एक दूसरे से कहने लगीं, यहां से चलो, ये पीड़िता का नहीं अभियुक्त का घर है।
दरअसल पीड़िता और अभियुक्त के घर के बीच एक पतली सी सड़क ही है। दोनों घरों के बीच बहुत ज़्यादा फासला नहीं है। बस बीच में एक छोटा सा पोखर ही है। पीड़िता के घर के बाहर मीडिया का जमावड़ा है। पुलिसकर्मी यहां आने वाले मीडियाकर्मियों को भी रोक रहे हैं। वो कहते हैं, अंदर बहुत भीड़ है, कुछ लोग बाहर आएंगे तब ही जाने दिया जाएगा।
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थोड़ी ही देर में बीजेपी के प्रभारी मंत्री भूपेंद्र उपंद्रे चौधरी का काफिला गांव आया। पीड़िता के परिजनों ने उनका भारी विरोध किया। वो ये बताने आए थे कि सरकार परिवार के साथ है और इंसाफ दिलाकर रहेगी। परिजन सवाल करते हैं, अंतिम संस्कार तो करने नहीं दिया गया, इंसाफ क्या दिलाया जाएगा। भारी विरोध के बीच वो बहुत देर रुक नहीं पाते।
पीड़िता की मां को मीडिया ने घेर रखा है। उनकी आवाज बैठ गई है। वो रुंधे हुए गले से जवाब देने की कोशिश करती हैं। इसी बीच एक चैनल का पत्रकार आकर महिलाओं को समझाता है कि सभी अपना चेहरा ढप लें और पीड़िता का नाम न ले। वो कई बार दोहराता है कि बलात्कार पीड़िता का नाम लेना, पहचान जाहिर करना अपराध है। मां एक और पत्रकार को उन्हीं सवालों के जवाब देने की कोशिश करती है जिनके जवाब देते-देते अब वो थक गई हैं।
उनका शरीर आराम चाहता है। लेकिन जिस मां की जवान बेटी की मौत हुई है क्या उसे चैन आ सकता है? उनकी रसोई में बर्तन बिखरे हुए हैं। दाल बनीं तो है लेकिन किसी ने खाया नहीं है। चावल तो कच्चे ही पड़े हैं।
घर के छोटे-छोटे बच्चे परेशान हैं। पीड़िता की भाभी का बच्चा बार-बार उनके पास आकर कुछ खाने के लिए मांगता है लेकिन वो मीडिया के कैमरों से घिरी हैं। उनके पास अपने बच्चों को कुछ खिलाने की भी फुर्सत नहीं है।
वो जाना भी चाहती हैं तो पत्रकार बस एक सवाल-एक सवाल कहकर उन्हें रोक लेते हैं। हर सवाल के जवाब में वो यही कहती हैं कि उन्हें अपने घर की बेटी के लिए इंसाफ चाहिए। वो बार-बार कहती हैं, जिस तरह उनके घर से लाश उठी है उसी तरह अभियुक्तों के घर से चार लाशें उठनी चाहिए तब ही उन्हें चैन मिलेगा।
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गांव की महिलाएं घरों से झांकती हैं और फिर भीतर चली जाती हैं। हाथ में माइक देखकर कोई बात करना नहीं चाहता। सब यही कहते हैं, आप पत्रकार तो चले जाएंगे, हमें इसी गांव में रहना है, हमें क्यों किसी से दुश्मनी मोल लें?
एक रास्ता गांव से दूसरी ओर बाहर की ओर जाता है। इधर धान के खेत अधिक हैं। एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठे गांव के कुछ लोग मोबाइल में वीडियो पर अपने ही गांव की बेटी से जुड़ी ख़बरें देख रहे थे। वो कहते हैं बच्ची के साथ बहुत गलत हुआ। इंसाफ मिलना चाहिए। बहुत सीधी और नेक बच्ची थी। कभी-कभी हमारे खेतों पर भी घास काटने आती थी। किसी से कुछ नहीं बोलती थी।
कुछ खेतों में नीले बैंगन पत्तियों की बीच से झांक रहे हैं। कुछ दूर आगे चलने पर वो जगह है जहां बीती रात पुलिस ने पीड़िता का ज़बरदस्ती अंतिम संस्कार कर दिया था। एक टीवी रिपोर्टर चिता के पास खड़ी होकर अपनी पीटीसी में कहती है- अधिकार सिर्फ जिंदा लोगों के ही नहीं होते, मरने वालों के भी अधिकार और सम्मान होता है। बीती रात यहां पुलिस ने अंधेरे में जबरदस्ती अंतिम संस्कार करके पीड़िता का वो अधिकार भी छीन लिया।
अंतिम संस्कार के दौरान पुलिस और गांववालों की बीच हुई झड़प के गवाह वो खेत हैं जिनमें लगी फसल कुचल गई है। चिता से अभी भी धुआं उठ रहा है। यहां बिलकुल सन्नाटा सा पसरा है। बीच-बीच में पक्षियों के चहकने की आवाज़ आती है। और फिर सन्नाटा पसर जाता है।
पीड़िता के घर वापस लौटने पर पता चलता है कि पुलिस उसके पिता को जबरदस्ती उठा ले गई है। भाई कहता है, मेरे पिता को जबरदस्ती ले गए हैं, मुख्यमंत्री से बात कराएंगे ताकि हम पर चुप रहने का दबाव बन जाए। लेकिन हम चुप नहीं होंगे, जब तक इंसाफ नहीं मिलेगा।
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अब अंधेरा हो चुका है। बत्ती चली गई है। बाहरी जिलों से आए पुलिसवाले अपने टिफिन खोल रहे हैं। कुछ पुलिसकर्मियों के पास टिफिन नहीं है। एक पुलिसकर्मी कहता है, आज तो कच्चे बैंगन तोड़कर खाने पड़े।
मैं गांव से बाहर निकली ही थी, कि एक स्थानीय संवाददाता का फोन आ गया, मुख्यमंत्री ने पीड़िता के परिवार के लिए मदद का ऐलान कर दिया है। पच्चीस लाख रुपए। एक पक्का घर और भाई को सरकारी नौकरी। मदद का ऐलान तो हो गया। इंसाफ मिलना बाकी है। इंसाफ मिलेगा तब ही इसी तरह की घटनाएं रुक सकेंगी।
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