दुर्गुणों के लिए कहा गया है ‘विषरस भरा कनक घटु जैसे।’ इसका सीधा-सा अर्थ है जहर से भरा हुआ सोने का घड़ा। मनुष्य के दुर्गुण बड़े साइलेंट परफॉर्मर होते हैं, लेकिन गलत परिणाम देने में उतने ही विस्फोटक भी रहते हैं। इसीलिए इंसान सबसे ज्यादा मात अपने ही दुर्गुणों से खाता है। दूसरों को जीतना आसान है, पर खुद पर विजय बड़ा परिश्रम मांगती है। रावण दुर्गुणों का पुलिंदा था। हनुमान जैसे पराक्रमी को भी उसका सामना करने में कई कठिनाइयां आईं।
युद्ध के दौरान एक बार तो ऐसी स्थिति बन गई कि तुलसीदासजी को लिखना पड़ा- ‘संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो। महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुं जय जय भन्यो।।’ श्रीराम का स्मरण कर धैर्यवान हनुमानजी ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोनों पृथ्वी पर गिरते और फिर उठकर लड़ते। इस पर देवताओं ने दोनों की जय-जयकार की। इस प्रसंग में देवता दोनों की जय करते हैं, यह भी सोचने वाली बात है।
जब आप दुर्गुणों से लड़ते हैं तो दुनिया आपकी और आपके दुर्गुण दोनों की जयकार करती है। यहीं पर हम भ्रम में आ जाते हैं। लेकिन, हनुमानजी को सबसे बड़ा सहारा था परमात्मा के स्मरण का। इसीलिए वे कभी भ्रमित नहीं हुए। लड़ाई जब दुर्गुणों से हो तो परमशक्ति को चिंतन में रखिए, फिर लड़िए उनसे।
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