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अटल-आडवाणी ने पंजाब की राजनीति को समझ लिया था, मोदी-शाह ऐसा नहीं कर पा रहे?

पंजाब की राजनीति को भाजपा कितना समझती है? मुझे लगता है कि इसका जवाब होगा कि उसे बहुत कमजोर समझ है। मोदी-शाह निश्चित तौर पर न पंजाब को समझते हैं, न पंजाबियों को, न उनकी राजनीति को और खासतौर पर सिखों को नहीं समझते हैं। वरना पंजाब के किसानों के विरोध-प्रदर्शनों के मामले में उन्होंने इस तरह गड्ढा न खोदा होता।

उत्तर भारत में पंजाब इस मायने में अलग है कि उसने मोदी के जादू से खुद को अछूता रखा है। 2014 और 2019 के आम चुनावों में कुछ जगहों पर तो उन्होंने भाजपा की जगह ‘आप’ को वोट दिया, बावजूद इसके कि मुख्यतः सिखों का राजनीतिक दल, शिरोमणि अकाली दल भाजपा का सहयोगी था। उत्तर भारत में पंजाब ही ऐसा राज्य था, जहां दोनों चुनावों में कथित मोदी लहर बेअसर साबित हुई थी। 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में भी मोदी का पंजाब में कोई असर नहीं पड़ा। इतनी नाकामी के बाद भी मोदी और शाह को अगर पुनर्विचार की जरूरत नहीं महसूस हुई, तो किसानों के आंदोलन के मामले में अफरातफरी शायद उन्हें यह महसूस कराए।

भाजपा अपने आलोचकों को जड़ों से दूर, अंग्रेजी भाषी बताकर खारिज करती है और अपनी भदेस लफ्फाजियों पर इतराती है। इसलिए उसे इस क्षेत्र की पुरानी कहावत से कुछ सीख लेनी चाहिए कि किसी जाट किसान से आप उसके खेत में लगा एक भी गन्ना छीन नहीं सकते लेकिन उसे खुश करके आप उससे गुड़ की ईंट जरूर भेंट में हासिल कर सकते हैं। बस आपको नरमी और दोस्ताना भाव से शुरुआत की जरूरत है। लेकिन कृषि कानूनों के मामले में भाजपा ने ठीक इसका उलटा किया है।
मोदी-शाह की भाजपा की बुनियादी राजनीति मोदी की लोकप्रियता, हिंदुत्व के नाम पर ध्रुवीकरण, भ्रष्टाचार मुक्त छवि और राष्ट्रवाद पर चलती है। पंजाब में यह क्यों नाकाम हो गई? कृषि कानूनों को लेकर दूसरे कृषि प्रधान राज्यों में शायद ही कोई हलचल है। बड़ी खेतिहर आबादी वाला महाराष्ट्र शांत है। तो पंजाब क्यों नाराज है? क्योंकि यह राज्य और सिख कुछ अलग हैं।

पंजाब में पारंपरिक हिंदू-मुस्लिम वाला तत्व गायब है। पंजाब में जो थोड़े-से मुसलमान मलेरकोटला में रहते हैं उन्हें सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह के समय से सिखों का सद्भाव और सुरक्षा मिलती रही है क्योंकि यहां के नवाब ने औरंगजेब से गुरु के बेटों की रक्षा की थी।

पारंपरिक रूप से पहले आरएसएस और फिर भाजपा सिखों को अलग वेशभूषा वाले हिंदू ही मानती रही है। फिर भी सिख हिंदू नहीं हैं, वे हिंदुत्व के मुरीद नहीं हैं। अगर होते तो तीन बार अपने उत्कर्ष पर पहुंचे मोदी को उन्होंने खारिज नहीं किया होता। यह हमने तब देखा जब भिंडरावाले अपने उत्कर्ष पर था। तब आरएसएस यह विश्वास नहीं कर पाया होगा कि पंजाब में सिख हिंदुओं पर हमला करेंगे। उस समय इसके सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने बयान दिया था कि सिख तो केशधारी हिंदू ही हैं। भिंडरावाले सिखों के लिए अल्पसंख्यक दर्जे और पर्सनल कानून की मांग कर रहा था। सिख-हिंदू विभाजन 1960 के दशक में अकालियों के पंजाबी सूबा आंदोलन के कारण तब और गहरा हुआ, जब आरएसएस/भारतीय जनसंघ ने इसका विरोध किया। 1977 के बाद अकालियों और जनता पार्टी में शामिल पूर्व जनसंघियों ने हाथ मिला लिए। लेकिन उनमें जल्दी ही फूट भी पड़ गई।

अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व वाली जोशीली भाजपा को समझ आ गया था कि पंजाब में भाजपा को मजबूत करने का एक ही उपाय है, हिंदुओं और सिखों में फिर से मेल। उन्होंने समान विचार वाले अकाली नेताओं से, जेल में कैद के दौरान हुई बातचीत को आगे बढ़ाया। इस तरह अकाली दल और भाजपा का गठबंधन अस्तित्व में आया। लेकिन अब भाजपा ने उस रिश्ते को अहंकार में तोड़ दिया है। उसने उन्हें सम्मानित सहयोगी का दर्जा देने की जगह पंजाब और सिखों का कृपालु बड़ा भाई बनने की कोशिश की। यह आकलन में कई भूलों को उजागर करता है।

पहली, यह मान लेना है कि पंजाब सिर्फ एक ही चट्टान से बना है, दूसरी यह कि सिख भी ऐसे ही हैं। जबकि उनमें भी जातियों, गोत्रों के बंटवारे हैं। आज भाजपा में जिन प्रमुख सिखों को देख रहे हैं वे जाट (पंजाबी में जट्ट कहते हैं) समुदाय के नहीं हैं, जो बड़ी जोत वाले किसान हैं। और तीसरी भूल यह मानना कि सिख हिंदू हैं। दरअसल वे वैसे हिंदू नहीं हैं जैसे वडोदरा, वाराणसी, या विदर्भ के हिंदू हैं।

सिखों को अच्छी लड़ाई बहुत पसंद है और मोदी सरकार ने उन्हें यही दे दिया है। यह नहीं चलेगा, पंजाबियों के साथ आपको तर्क के साथ पेश आना होगा। वे उद्यमी होते हैं, उन्हें इन सुधारों में तार्किकता नज़र आ सकती है। लेकिन अगर आप उनके गले पर सवार होकर उनसे बात करेंगे तो फिर आप उनसे बेरीकेड्स पर ही मिलिए।

अंतिम बात यह है कि पंजाब हिंदी/हिंदू पट्टी का हिस्सा नहीं है। यहां हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण वाली चाल नहीं चल पाएगी। हां, आप हिंदू-सिख ध्रुवीकरण कर सकते हैं। लेकिन यह कोई नहीं चाहेगा। लेकिन, अगर आप ऐसा करते हैं तो आप किसानों पर यह तोहमत भी लगाएंगे कि वे खालिस्तानियों के बहकावे में आ गए हैं। यही करना है, तो बिना मतलब तिल का ताड़ बनाते रहिए!

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’


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